मीरा-भाईंदर शहर में इन दिनों लगातार अलग-अलग समाज के भाषा के प्रांत के नामपर भवन बनाये जाने की घोषणाएं की जा रही है। इस मुद्दे को लेकर मीरा-भाईंदर शहर की राजनीति काफ़ी गर्मा गई है। हालाँकि इसकी शरुआत कई साल पहले मीरा-भाईंदर शहर में उत्तर भारतीय भवन के निर्माण की मांग को लेकर हुई थी जो बाद में आगरी भवन, मराठा भवन, वारकरी भवन, हिंदी भाषा भवन से लेकर अब मिथिला भवन तक आ पहुंची है तो इसी के साथ-साथ अब मुस्लिम भवन, क्रिश्चियन भवन, केरला भवन जैसे अन्य कई समाज के लोगों ने भी अपने-अपने समाज के लिए भवनों के निर्माण मांग तेज कर दी है।
महाराष्ट्र में फिलहाल एकनाथ शिंदे प्रणीत शिवसेना और देवेंद्र फडणवीस की शिवसेना-भाजपा की सरकार है। मीरा भाईंदर शहर में अब महानगर पालिका अस्तित्व में नहीं होने के कारण मनपा आयुक्त दिलीप ढोले प्रशासक के रूप मनपा का कार्यभार संभाले हुए हैं। सभी को पता है की मनपा आयुक्त दिलीप ढोले पहले के नगरविकास मंत्री और अभी के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के ख़ासमख़ास हैं। यहाँ के शिवसेना के विधायक प्रताप सरनाईक भी मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे गुट में शामिल हैं और इसी कारण से मीरा-भाईंदर शहर में अब निरंकुश सत्ता का खेल खेला जा रहा रहा है। अलग-अलग समाज, भाषा या प्रांत के नामपर भवनों के निर्माण की घोषणा करना भी उसी खेल का एक हिस्सा है ताकि आनेवाले चुनावों में इसका राजनैतिक लाभ उठाया जा सके। लेकिन क्या इस तरह की राजनीति करना नैतिकता के आधार पर उचित है?
किसी भी शहर के विकास में शहर के हर एक करदाता नागरिक का बराबर का योगदान होता है। संवैधानिक रूप से देखा जाए तो देश के हर एक नागरिक को अपनी मर्जी से अपने धर्म, भाषा के अनुसार जीवन यापन करने का अधिकार मिला हुआ है लेकिन इसके बावजूद जब पुरे देश की, या पुरे शहर की या पुरे समाज की बात आती है तो सभी नागरिकों पर यह जिम्मेदारी तय हो जाती है की वो अपने धर्म-जाती और भाषा का बंधन सिर्फ़ अपने व्यक्तिगत स्वरूप तक ही सिमित रखें उसे किसी और पर थौंपा नहीं जा सकता। यह बात देश के हर एक नागरिक पर लागू होती है। इसी वजह से जब किसी राज्य में या किसी शहर के स्थानीय नगर निगम में विकास कार्य किए जाते हैं तब वह किसी समाज, जाती-धर्म या भाषा विशेष को ध्यान में रखकर नहीं बल्कि उस शहर में रहनेवाले हर एक नागरिक की जरूरतों को ध्यान में रखकर किए जाते हैं । वैसे भी स्थानीय नगर निकायों के कानून में ऐसा कोई प्रावधान भी नहीं किया गया है की किसी समाज, भाषा या प्रांत के लोगों के लिए सरकारी ख़र्चे से भवनों का निर्माण किए जाएँ। लेकिन इसके बावजूद भी इन दिनों देखा गया है की स्थानीय विधायक, पार्षद या अन्य राजनेता अपने चुनावी फायदे को ध्यान में रखकर इस तरह समाज, भाषा, धर्म, प्रांत के नामपर भवनों के निर्माण की मांग करते दिखाई दे रहे हैं जो की किसी भी तरह से उचित नहीं है। क़ानूनी मान्यता की बात करें तो इस तरह के भवन कभी बन नहीं पाएंगे।
अब हम सभी लोगों को एक देश का, एक शहर का, एक नगर का जिम्मेदार व सजग नागरिक बनते हुए शहर में अच्छे स्कुल-कॉलेज, अच्छे अस्पताल, अच्छी सड़कें, स्वच्छ पीने का पानी और बाकी सभी मूलभूत सुविधाओं की मांग करनी चाहिए ना की अपने समाज के, भाषा के, जाती के, प्रांत के भवनों की मांग करनी चाहिए। उम्मीद है की हम सब एक जागरूक नागरिक बनकर शहर के सर्व समावेशक विकास में अपना योगदान देंगे!