14 October 2018

मुंगेरीलाल के हसीन सपने?

जैसे जैसे चुनावी तारीख़ नज़दीक आती जा रही है वैसे वैसे राजनैतिक पार्टियों की सरगर्मियां भी तेज़ होने लगी हैं। भाजपा, कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय पार्टियां इस शहर में अपने-अपने वज़ूद को तलाशने में जुटी हैं। वैसे तो मीरा-भाइंदर शहर में फ़िलहाल भारतीय जनता पार्टी की एकतरफ़ा हुकूमत है। यहां के विधायक नरेंद्र मेहता २०१४ के विधानसभा चुनाव भले ही उस वक्त चल रही "मोदी लहर" में चुनाव जीत गए हों लेकिन उन्होंने अभी हाल ही में अगस्त २०१७ में हुए मनपा के चुनावों में अपने दमपर रिकॉर्ड सबसे ज्यादा ६१ सीटें जीतकर अपना दबदबा क़ायम किया है। वैसे एक वक्त ऐसा भी था जब कांग्रेस पार्टी की भी अच्छी ख़ासी पकड़ इस शहर में हुआ करती थी लेकिन अगस्त २००७ के मनपा चुनावों में कांग्रेस ने एकतरफ़ा जीत हासिल करते हुए सबसे ज्यादा ३३ सीटें जीतने के बावज़ूद अपनी राजनैतिक दूरदृष्टिता के अभाव के कारण उस वक़्त कांग्रेस के दिग्गज कहे जानेवाले नेता मुजफ़्फ़र हुसैन मनपा में अपनी सत्ता काबिज़ करने में नाक़ाम रहे और शहर में कांग्रेस के पतन की शुरुआत भी यहीं से हुई। राष्ट्रवादी कांग्रेस भी एक बड़ी पार्टी इस शहर में अपना वजूद बनाये हुए थी लेकिन किसी ज़माने में राष्ट्रवादी कांग्रेस के सर्वेसर्वा रहे गणेश नाईक के सुपुत्र संजीव नाईक २०१४ के लोकसभा चुनाव और मीरा-भाइंदर शहर पर एकछत्र राज करनेवाले गिल्बर्ट मेंडोसा के विधानसभा चुनाव हारने के साथ ही राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का अस्तित्व भी अब ख़तरे में पड़ गया है।
अब आनेवाले चुनावों को लगभग लगभग एक साल बचा है ऐसे में पिछले कुछ दिनों से राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी मीरा-भाइंदर शहर में अपने बचे-कूचे कार्यकर्ताओं को इकठ्ठा कर पार्टी को फ़िर से खड़ा करने की कोशिश कर रही है तो वहीं कांग्रेस पार्टी भी चुनावी तैयारी में जुट गई है। इन दोनों धर्मनिरपेक्ष कही जानेवाली पार्टियों की तुलना की जाए तो राष्ट्रवादी कांग्रेस के पास तो फ़िर भी ख़ुद गणेश नाईक, संजीव नाईक, प्रकाश दुबोले जैसे कुछ बड़े चेहरे हैं जो पार्टी में नई जान फूंकने की कोशिश कर सकते हैं लेकिन वहीं कांग्रेस पार्टी में सिवाय मुजफ़्फ़र हुसैन के एक भी ऐसा नेता नहीं है जो कभी अपने वार्ड से भी बाहर गया हो। शहर का एकमात्र नेतृत्व कहे जानेवाले मुजफ़्फ़र हुसैन ने मीरा-भाइंदर शहर की कांग्रेस पार्टी में कुछ इस तरह अपनी पैठ जमाई हुई है की उनके अलावा दूसरे नंबर का एक भी नेता कभी अपना अलग से वज़ूद नहीं बना पाया या यूँ कहिये की मुजफ़्फ़र हुसैन ने बनाने ही नहीं दिया और अब उसीका ख़ामियाजा कांग्रेस पार्टी को भुगतना पड़ेगा। क्योंकि मान लो अगर पहले आनेवाले लोकसभा चुनाव में काँग्रेस और राष्ट्रवादी कॉंग्रेस अलग-अलग चुनाव लड़ने का फ़ैसला करते है तो ठाणे लोकसभा क्षेत्र के लिए कांग्रेस पार्टी के पास एक भी ऐसा चेहरा नहीं है जो लोकसभा चुनाव लड़ सके; यही हाल विधानसभा क्षेत्र का भी है। मीरा-भाइंदर शहर में दो विधानसभा क्षेत्र आते हैं एक है १४५- मीरा-भाइंदर विधानसभा क्षेत्र और दूसरा १४६-ओवला माजीवड़ा विधानसभा क्षेत्र। १४६ विधानसभा क्षेत्र के लिए ठाणे से बालासाहेब पूर्णेकर एक मजबूत दावेदार माने जाते थे लेकिन उनकी अकस्मात मौत होने के कारण अब कांग्रेस के पास इस विधानसभा क्षेत्र के लिए कोई तगड़ा उम्मीदवार दिखाई नहीं देता। तो वहीं १४५-विधानसभा क्षेत्र के लिए मुजफ़्फ़र हुसैन अपनी दावेदारी जता तो रहे हैं लेकिन राजनैतिक जानकारों का मानना है की मुजफ़्फ़र हुसैन भले ही राजनैतिक अनुभवों में सबसे वरिष्ठ हैं, "धनबल" में भी सक्षम हैं लेकिन साल २००२ से लेकर आजतक उन्होंने इस शहर की जनता के लिए जॉगर्स पार्क, कब्रस्तान और स्मशानभूमि जैसे कुछ एक कार्यों को छोड़कर दूसरा कोई ऐसा लक्षणीय कार्य नहीं किया जिसे जनता याद रख सकें। वो कभी जनता के सवाल लेकर महानगरपालिका जाते नहीं, उन्होंने कभी जनता से जुड़ा कोई बड़ा आंदोलन खड़ा नहीं किया, सत्ताधारी पार्टी भाजपा के ख़िलाफ़ वो कभी खुलकर बोलते नहीं, मनपा में फ़ैले भ्रष्टाचार को रोकने के लिए उन्होंने कभी कोई कदम नहीं उठाये हैं। उलटे कई टेंडर के भ्रष्टाचार में उनकी पार्टी के शामिल होने की अफवाएं आये दिन शहर में फैलती रहती हैं। राजनैतिक विश्लेषकों का कहना है की व्यक्तिगत तौर पर भी उनके अंदर राजनैतिक दूरदृष्टि का अभाव है, उन्होंने ख़ुद से आम जनता के बिच बनाई हुई दुरी और उनके तेज़ और घमंडी स्वभाव की वज़ह से मीरा-भाइंदर शहर की जनता उनसे सीधे संवाद करने से बचती रही है और यही बड़ी वज़ह है की आम जनता ने उन्हें कभी अपने नेता के रूप में स्वीकार ही नहीं किया है।
अब भले ही मुजफ़्फ़र हुसैन आनेवाले चुनावों को ध्यान में रखकर अपने कुछ पुराने कार्यकर्ताओं को बुला-बुलाकर फ़िर से कांग्रेस के अंदर "शक्ति" द्वारा फ़िर से जान फूंकने की कोशिश कर रहे हों लेकिन जबतक वो अपने स्वभाव में एक बड़ा बदलाव लाकर शहरवासियों के बीच नहीं जाते, उनसे सीधे संवाद नहीं साधते तबतक इस शहर की जनता उन्हें अपने नेतृत्व के रूप में स्वीकार करना मुश्किल मालूम होता है।
इन सारी बातों पर ग़ौर करें तो फ़िलहाल तो मुजफ़्फ़र हुसैन को इस शहर के किसी भी में चुनाव जीत हासिल करना मतलब "मुंगेरीलाल के हसीन सपने" समान ही है।
~ मोईन सय्यद




07 October 2018

क्या गीता जैन जी फिर वही इतिहास दोहराएंगी?


सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सब ने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

दोस्तों!
वैसे तो यह कविता रानी लक्ष्मीबाई वीरता के सम्मान में लिखी गई थी। अगर कुछ फेर बदल किए जाएं तो आज मीरा भाईंदर शहर के एक राजनैतिक व्यक्ति पर यही पंक्तियाँ बहुत सटीक बैठती हैं और वो है गीता भरत जैन जी!
वैसे तो उनकी लड़ाई अभी शुरू ही हुई है लेकिन जिस तरह से उन्होंने एक प्रस्थापित व्यवस्था को चुनौती देने की हिम्मत दिखाई है वो काबिले तारीफ़ है। राजनैतिक परिपेक्ष्य में हार-जीत तो लगी रहती है लेकिन किसी बुलंद व्यवस्था को चुनौती देने का अदम्य साहस हर किसी मे नहीं होता। इस शहर की राजनीति मे देखा गया है कई दिग्गज राजनेता विरोधी पार्टी मे होने के बावजूद अपने विपक्षियों चुनौती देने की बजाय उनसे समझौता कर मीली-जुली सरकार बनाकर अपना लक्ष्य हासिल करने मे अपनी धन्यता मानते हैं लेकिन कोई ऐसा नेतृत्व नही उभरा जो शहर की जनता को अपना नेता लगे जो जनता के अधिकारों की लडाई लडता हो। और यही वजह है कि लगभग बारह लाख जनसंख्या वाले इस मीरा भाईंदर शहर में आजतक कोई "मास लीडर" बनकर उभर नही पाया है
मीरा-भाईंदर नगरवासियों को गीता जैन जी के रूप मे एक सक्षम राजनैतिक नेतृत्व दिखाई देता है। अब देखना होगा की वो इस राजनैतिक कसौटी पर कितनी खरा उतरतीं हैं! फिलहाल तो हम यह कहेंगे की "खूब लडी मर्दानी, वो झांसी वाली रानी थी"
~ मोईन सय्यद (संपादक लोकहित न्यूज)